अररिया : अमर कथाशिल्पी रेणु की परती परिकथा में वर्णित सफेद बालूचर अब शायद ही कहीं दिखते। ये अब उपजाऊ खेतों में तब्दील हो चुके हैं। इन बालूचरों पर अब मूंगफली के रूप में लाल सोना उपजता है।
यह सब उन बर्मी विस्थापितों के परिश्रम का परिणाम है जिन्हें सरकार ने सत्तर के दशक में बर्मा से लाकर शुभंकरपुर के बालू बुर्जो पर बसाया था।
मैला आंचल की भूमि का इतिहास विद्रोही लहरों की स्वामिनी कोसी के साथ बावस्ता रहा है। पूरब में सीता धार से लेकर पश्चिम में सौरा, दुलारदेई, कमला, कमतहा, फेरियानी, हिरण आदि नदियों की अंतहीन श्रृंखला और इनके बीच फैले बालू के विशाल टीले। लोग इन्हें बालूचर कहते थे। अररिया शहर के एडीबी चौराहे से इन बालूचरों की शुरूआत होती थी। लोगों ने इन बालूचरों को नाम भी दे रखा था। एक नंबर बालूचर, दो नंबर, तीन नंबर .., आगे बढ़ने पर आप इनके जाल में उलझ कर रह जाते।
इन टीलों पर कुछ नहीं उगता था। बारिश के बाद सफेद फूलों वाले कास के जंगल उगते और ऐसा प्रतीत होता कि एक मुर्दा जमीन सफेद कफन ओढे़ पड़ी है। रेणु ने शायद इन्हीं को देख कर परती परिकथा की रचना की रचना की थी।
लेकिन वक्त की करवट के साथ कोसी के कहर से मुर्दा हो गयी जमीन अब सोना उगलने लगी है। फारबिसगंज से दक्षिण गढ़बनैली व आगे तक के गांवों में फैले बालूचरों पर अब टिटही की टिटकारी नहीं सुनहले पीलक की पीहू व कोयल की कुहू गूंजती है। .. धरती के बांझपन छूट जाने के संकेत और एक समृद्ध होती भूमि की हर्षध्वनि।
इस बदलाव की शुरूआत सत्तर के दशक में हुई, जब गिरमिटिया मजदूर के रूप में भारत से बर्मा गये लगभग सौ परिवारों को सन 1972 में बर्मा से वापस लाकर इन्हीं बालूचरों पर बसा दिया गया।
इन विस्थापितों ने अपनी मेहनत से बालूचरों को उपजाऊ खेतों में तब्दील कर दिया। जिस जमीन पर कास के सफेद फूलों के अलावा कुछ नहीं उगता था, वहां सरसों के सुनहले फूल व मूंगफली की हरियाली लहराती है। शुभंकरपुर गांव जिले में मूंगफली उत्पादन का हब बन गया है।
ग्रामीण राम प्रताप वर्मा ने बताया कि उन्होंने गांव वासियों के कठोर परिश्रम को उन्होंने अपनी आंखों से देखा है। पूर्वजों ने मूंगफली की खेती बर्मा में सीखी थी और इस हुनर का इस्तेमाल यहां किया गया। अब इन्हीं बालूचरों से हर साल लाखों क्विंटल मूंगफली उपजती है।
हालांकि विस्थापितों के श्रम परिदृश्य में सरकारी तंत्र साफ गायब ही नजर आता है। मूंगफली के कारोबार में बिचौलिए सक्रिय हैं, प्रशासन उदासीन है। गांव में मूंगफली आधारित एग्रो इंडस्ट्री की संभावना के बावजूद इस दिशा में अब तक कुछ नहीं किया गया है।
ग्रामीण रमेश प्रसाद वर्मा की मानें तो उद्योग के अभाव में वे अपना माल भागलपुर, कानपुर, हाथरस, सिलीगुड़ी, पटना आदि के पैकारों के हाथ बेच देते हैं। उपज की वाजिब कीमत भी नहीं मिलती।
वहीं, शुभंकरपुर का प्रभाव आसपास के गांवों पर भी पड़ा है और मूंगफली अब इलाके की मेन कैश क्राप बन गयी है।
पड़ोस के रहिकपुर ठीलामोहन गांव के अशोक यादव, दिलीप यादव, परमानंद यादव, राजीव भगत आदि ने बताया कि शुभंकरपुर की नकल पर अन्य गांवों में भी मूंगफली की खेती जोर पकड़ चकी है और जूट की खेती में होने वाले घाटे के कारण मूंगफली की ओर रुख कर चुके हैं।
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