Friday, April 20, 2012

प्राकृतिक संसाधनों के दोहन से खतरे में जिंदगी


अररिया : परती परिकथा की भूमि पर कुदरत के साथ खिलवाड़ के दुष्परिणाम कई बार सामने आ चुके हैं। यहां जीवन की बुनियादी शर्तो पर ही घना खतरा है। हरियाली उजड़ रही है और इसके दुष्परिणाम भी सामने हैं।
जरा रेणु की परिकथा को याद कीजिए। ..कुल्हड़िया आंधी के साथ कोसी के रास्ते नेपाल से आया पहड़िया पीला पानी। इलाके की धरती लाश बन गयी और उस लाश पर कफन की तरह फैल गये सफेद कास के जंगल। बाढ़ के साथ आये सिल्ट के कारण सतुआ बालू के बड़े बड़े बुर्ज बन गये और तब से बाढ़ सुखाड़ व चक्रवात का अंतहीन सिलसिला चालू है। खतरों की चेक लिस्ट लंबी है। लेकिन कुदरत के अंधाधुंध दोहन की हिस्ट्रीशीट उससे भी लंबी।
डेढ़ सौ साल पुराने अभिलेखों पर गौर करें तो इस जिले की पच्चासी प्रतिशत जमीन पेड़ों से आच्छादित थी। लेकिन आज जंगलात का रकबा बमुश्किल दस फीसदी रह गया है। यह सब जंगलों की अंधाधुंध कटाई का दुष्परिणाम है।
यह बात अलग है कि विगत एक दो साल से जंगलों की खोई गरिमा बहाल करने की कोशिशें चल रही हैं। डीएफओ रणवीर सिंह के नेतृत्व में रेंजर जेके सिंह व फॉरेस्टर हेम चंद्र मिश्रा अपनी टीम के साथ प्रकृति के प्रहरी की तरह कार्य कर रहे हैं। अररिया की हरियाली लौटाने का भरसक प्रयास हो रहा है।
हिमालय की शिवालिक रेंज की गोद में बसा अररिया जिला कृत्रिम वनों के मामले में आज भी सूबे में अव्वल है। यहां डेढ़ हजार एकड़ से अधिक भूमि में वृक्ष लगाये गये हैं। हरियाली फल फूल रही है। लेकिन आशा की इस तस्वीर के नीचे वृक्ष विनाश की काली कोशिशों का लंबा इतिहास है। नब्बे के दशक के बाद से ताकतवर वन माफिया ने यहां के सरकारी व निजी जंगलों को तकरीबन वीरान कर दिया।
जानकारों के अनुसार इस जिले में लगभग दो सौ वैध-अवैध आरा मिलें हैं। तीन दर्जन प्लाई व हाट प्रेस मिल भी कार्य कर रहे हैं। प्लाई मिलों में भले ही मलेशिया व इंडोनेशिया से आयी लकड़ियों का इस्तेमाल होता हो, बैंड सॉ तो पूरी तरह लोकल वृक्षों पर ही आश्रित हैं। कई प्लाई मिल भी स्थानीय लकड़ियों का इस्तेमाल करते हैं। इसका सीधा प्रभाव हरियाली पर पड़ रहा है। जानकारों की मानें तो जिले में लकड़ी मिल व हरियाली के इनपुट का सकारात्मक अनुपात बनाना जरूरी है।
बालू, पानी व जमीन जैसे कुदरती संसाधनों का भी अंधाधुंध दोहन हो रहा है। इन दिनों जिले में दो सौ से अधिक ईट भट्ठे कार्यरत हैं। स्पष्ट है कि इनके चलने के लिए करोड़ों टन मिट्टी हर साल उपयोग में लायी जाती है। यह मिट्टी उपजाऊ है और जब भट्ठे किसी खास स्थान से शिफ्ट कर जाते हैं तो वहां बेकार गढ्डों के सिवा कुछ नही बचता।
डीएफओ श्री सिंह की मानें तो वन विभाग ने विगत एक साल में साढ़े सात लाख से अधिक पौधे लगाये हैं। कुसियारगांव, आजमनगर, सैफगंज, परवाहा, रहिकपुर, सिमराहा, माणिकपुर आदि जंगलों का पुनस्र्थापन किया गया है। श्री सिंह ने बताया कि पूर्णिया अररिया सीमा पर हाइवे की बगल में करियात गांव में क्लोन तकनीक पर आधारित नर्सरी का विकास किया गया है। इससे भविष्य में खास कर शीशम में होने वाली सुखंडी बीमारी पर अंकुश लग सकेगा। उन्होंने कहा कि वन्य जीवों के संरक्षण के प्रति भी आम जन के बीच जागरूकता बढ़ रही है। इस जागरूकता को और आगे बढ़ाने में वन विभाग पीछे नहीं हटेगा।

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