अररिया : मैला आंचल का इलाका अपने घने बांस के झुरमुटों के लिए बेहद प्रसिद्ध रहा है। फूस के घर व सजावटी सामानों के निर्माण में यहां बांस एक प्रमुख सामान है। लेकिन मुंबई सहित अन्य महानगरों की ओर बांस के बेरोकटोक निर्यात से यहां अब बांस की किल्लत होने लगी है।
ईस्ट वेस्ट कोरीडोर के तहत फोरलेन सड़क बन जाने के बाद यहां का बांस अब सीधे मुंबई व अन्य महानगरों की ओर जा रहा है। जहां उसका उपयोग काटेज की सजावट व गार्डेनिंग आदि के लिए हो रहा है। जानकारों की मानें तो बाहर के व्यापारी यहां तीस चालीस रुपये प्रति बांस की दर से थोक में माल खरीद लेते हैं और उसे ट्रक में लाद कर ले जाते हैं। बांस की पैकारी करने वाले मुरारी मिश्रा ने बताया कि इस प्रक्रिया में कई स्तर पर लोग शामिल हैं। किसानों से बांस लेकर उसे मेन व्यापारी के पास बेच दिया जाता है। जहां से उन्हें ट्रक के डाला में अंटने लायक साइज में काट कर बाहर भेज दिया जाता है।
बांस के अंधाधुंध निर्यात के कारण स्थानीय स्तर पर उनकी किल्लत होने लगी है। अररिया जैसे विकासशील शहर में अब बांस पचास से सौ रुपये प्रति बांस की दर से मिल रहा है।
साइड स्टोरी
स्थानीय संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है बांस: बांस इस इलाके की ग्राम्य संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। प्रसिद्ध रचनाकार फणीश्वर नाथ रेणु ने अपनी कहानी ठेस में एक बांस कलाकार सिरचन को कथा नायक बनाया है। दर असल बांस से यहां कई प्रकार की कलात्मक वस्तुएं बनती रही हैं। इनका निर्माण आज भी होता है, लेकिन इस कला को सरकारी प्रोत्साहन बिल्कुल नही नही मिल रहा।
अस्सी के दशक में फारबिसगंज के बियाडा की जमीन पर बांस व बेंत आधारित प्रशिक्षण के लिए केंद्र की स्थापना की गयी थी। लेकिन प्रशासनिक उदासीनता के कारण यह केंद्र चलने से पहले ही बंद हो गया। अररिया के मार्केटिंग परिसर में ट्रायसेम योजना के तहत खुला बांस फर्नीचर उद्योग भी कुछ दिन चल कर बंद हो गया।
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