फारबिसगंज(अररिया) : दिव्य ज्योति जागृति संस्थान द्वारा आयोजित श्रीमद् भागवत कथा नवाह ज्ञान यज्ञ के सातवें दिन मंगलवार को आशुतोष जी महाराज की शिष्या साध्वी विश्वम्भरा भारती जी ने कहा कि शिक्षा केंद्रों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा का मुख्य उद्देश्य यही है कि वह अनपढ़ मानव पुतलों में मानवता के प्राणों का संचार करे। इन शिक्षा केंद्रों का मुख्य कर्तव्य यह है कि वह विद्यार्थियों में संवेदनशीलता, परोपकार, न्याय, संयम व सहनशीलता जैसे गुण प्रकट करें। इसमें कोई संशय नहीं कि मानव समाज की नींव का सबसे प्रथम व अहम पत्थर शिक्षा ही होता है। परंतु आधुनिक शिक्षा पद्धति नेत्रहीनता की शिकार होने के साथ साथ पंख विहीन होती नजर आ रही है जिस शिक्षा पद्धति से जुड़कर मानव अपने मूल से विलग हो गया वो अपनी संस्कृति से कैसे जुड़ सकता है और जो अपनी संस्कृति से अलग हो गया वो कभी बच्चों को अच्छे संस्कार नहीं दे सकते। आधुनिक शिक्षा पद्धति का प्रभाव समाज में व्याप्त समस्याओं में प्रबल रूप से देखा जा रहा है। शिक्षा विशारद कहते हैं कि समाज को सुशिक्षित करो लेकिन अब भी एक प्रश्न झूल रहा है कि क्या समाज को शिक्षित करके समस्याएं व बुराईयां दूर हो गयी? शिक्षा का प्रसार होने से बच्चे संस्कारवान हो गये? यदि ऐसी बात है तो समाज में प्रतिदिन नैतिक और चरित्र हनन की घटनाएं क्यों सुनने को मिल रही है? शैक्षणिक संस्थाओं में बच्चों द्वारा की जाने वाली हिंसक घटनाएं किस बात का संदेश दे रही है? शास्त्र तो कहते हैं कि विद्या वही है जो विनयशीलता प्रदान करे। परंतु हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों को की मन: स्थिति को नहीं बदल पाती जिस कारण वह बदले की भावना से ग्रसित रहता है। इन समस्याओं के मूल को समझने की आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि स्वामी विवेकानंद जी ने वर्तमान शिक्षा पद्धति को नकारात्मक शिक्षा पद्धति का दर्जा दिया। जबकि रवींद्र नाथ टैगोर ने कहा था जो हमारा शिक्षित वर्ग है वह सुसंस्कृत वर्ग न होकर केवल मात्र उपाधिधारी उम्मीदवारों का वर्ग है। अधिकांश छात्र इसी उद्देश्य से विद्यालयों में दाखिल होते हैं कि उन्हें अच्छी डिग्री व नौकरी हासिल हो इसके लिए वह गलत साधन अपनाने से भी गुरेज नहीं करते। वर्तमान शिक्षा पर उन्होंने कहा कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली अपना दायित्व पूर्ण नहीं कर पा रही हैं। छात्रों के चारित्रिक विकास के लिए उनके पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा को भी जोड़ा गया, लेकिन कोई परिवर्तन नजर नहीं आ रहे।
उन्होंने कहा कि बच्चों की प्रज्ञा में सनातन संस्कार डालने के लिए हमें उसी पद्धति को अपनाना होगा जो वैदिक काल में प्रचलित था जिसमें शिक्षा के साथ साथ दीक्षा को भी महत्व दिया गया। वर्तमान शिक्षा प्रणाली रोग के लिए औषधि के सेवन की बात तो करती है लेकिन वह यह नहीं जानती कि औषधि क्या है। उसी औषधि के बारे में शिक्षा नहीं अपितु दीक्षा के माध्यम से पता चलेगा। दीक्षा समन्वित शिक्षा प्रणाली ही वर्तमान काल में नैतिकता व चारित्रिक उत्थान की द्योतक है। आधुनिक शिक्षालयों में दीक्षा प्रदान नहीं की जा सकती।
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