Monday, January 3, 2011

अररिया: बदलने लगी है कार्य संस्कृति

अररिया : रंगदारी व चंदाखोरी पर लगाम कसने तथा ला एंड ऑर्डर में सुधार के बाद जिले का आर्थिक व शैक्षिक परिदृश्य बदल रहा है।
जिले के प्रमुख बाजारों में नित दिन खुल रहे बड़ी कंपनियों के शोरूम तथा उनके प्रबंधन द्वारा आमजन के साथ इंटरएक्शन के प्रयास देख ऐसा लगता है कि जिले में एक नयी कार्य संस्कृति विकसित हो रही है।
बाजार पर नजर दौड़ायें तो साफ है कि कुछ समय पूर्व तक अररिया जिले में दोपहिया वाहनों, ट्रैक्टर, सिंचाई पंप सेट आदि के शोरूम नगण्य थे। किसानों को ट्रैक्टर आदि की खरीद के लिये पूर्णिया या कटिहार जाना पड़ता था। लेकिन अररिया के किसान अब रोटावेटर, फसल कटाई मशीन,जेसीबी, जीरो टीलेज मशीन जैसे आधुनिकतम उपकरणों से रूबरू हो रहे हैं। जिला मुख्यालय व फारबिसगंज अनुमंडल मुख्यालय में दोपहिया वाहन व ट्रैक्टर की कोई ऐसी कंपनी नहीं होगी, जिसके शोरूम न हों। विगत पांच सात वर्ष में ही अररिया में ट्रैक्टरों के पांच तथा मोटरसाइकिल के सात शोरूम खुले हैं।
शहर में कार्यरत हीरो होंडा शोरूम के डायरेक्टर सुमन कुमार सिंह ने बताया कि अब अररिया जैसे जिले में भी काम करने में आनंद आता है। किसी प्रकार का दबाव नहीं। जबकि पहले चंदाखोरी व रंगदारी से लोग त्रस्त रहते थे। उन्होंने बताया कि उद्यमियों को चाहिये सपोर्टिग वातावरण, वह अब मिल रहा है। वहीं, थोक दवा का कारोबार करने वाले एक व्यवसायी की मानें तो प्रदेश में राजग की सरकार आने के बाद व्यवसाय व कारोबार की दिशा में अच्छी प्रगति हुई है।
क्योंकि गुंडागर्दी व आपराधिक घटनाएं कम हुई हैं।
वहीं, शिक्षा के क्षेत्र में भी परिदृश्य व कार्य करने की संस्कृति बदल रही है। यह बदलती कार्य संस्कृति का ही परिणाम है कि अररिया जैसी जगह में अब अनिवासी भारतीय इंजीनियरिंग कालेज खोलने की बात कर रहे हैं। बिहारी अस्मिता सम्मान से विभूषित आस्ट्रेलिया में रह रहे एनआरआई अमित कुमार दास ने विगत दिनों फारबिसगंज के निकट अपने पिता के नाम पर तकनीकी संस्थान खोलने की बात कही।
वहीं, एक बड़े कारोबारी ने बताया कि सरकार की तरफ से अररिया जैसे पिछड़े जिले में उद्यमियों को अगर प्रोत्साहित किया जाय तो विकास की गति तेज होगी तथा पिछड़ेपन से भी निजात मिलेगी।
विगत एक साल के घटनाक्रम पर ही नजर दौड़ाएं तो साफ है कि अब बदलाव आ रहा है। उर्वरक, बीज व पेस्टीसाइट बनाने वाली कंपनियां अब गांवों में शिविर लगाकर सीधे किसानों से संवाद कर रही हैं।
बड़ी कंपनियों की नजर गांवों पर है और वे जिले के गांवों को अपने लिये बाजार के रूप में देख रही हैं। वर्क कल्चर में परिवर्तन की रफ्तार अभी भले ही कम लग रही हो, नये साल में इसका प्रभाव खुल कर सामने आयेगा।

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