नरपतगंज (अररिया) : कार्तिक माह शुरू होते ही कई पर्व-त्योहार शुरू हो जाते र्ह और छठ के दिन से ही शुरू हो जाता भाई बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक लोकपर्व सामा-चकेवा। इस पर्व का समारोप कार्तिक पूर्णिमा के दिन होता है। ..सामा खेले गेलिए ऐ सभे भईया के कनिया भौजी लेले ललूआए कहां रे.. गीत गाती है। इस दौरान खेल में चुगला का मुंह भी झरकाया जाता है।
पौराणिक कथा के अनुसार सामा-चकेवा में सामा कृष्ण की पुत्री थी। सामा को घुमने फिरने में बड़ा मजा आता था। इसलिए वह अपनी दासी डिसुली के साथ वृंदावन में जाकर ऋषियों के संग खेलती थी। यह बात दासी को नही भाया और बात उसने सामा के पिता से इसकी शिकायत क दी। श्रीकृष्ण ने गुस्से में आकर अपनी पुत्री को पक्षी होने का श्राप दे दिया। इसके पश्चात सामा पक्षी बनकर वृंदावन में रहने लगी। यह देखकर साधु संत भी पक्षी बनकर रहने लगे। सामा के भाई साम्ब को मालूम हुआ तो बहन को श्राप से मुक्त कराने के लिए अपने पिता की तपस्या शुरू कर दी। इस पर श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर सामा को नौ दिनों के लिए अपने पास आने का वरदान दिया। उसी दिन से सामा की पूजा अपने भाई की दीर्घायु होने के लिए की जाती है। वहीं कुछ जानकार लोगों का कहना हैं जब सामा को पक्षी होने का श्राप मिला तो उसके पति ऋषि कुमार चारू शिव की अराधना कर चकवा पक्षी के स्वागत में ही लोक पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष से कार्तिक पूर्णिमा तक मनाया जाता है।
पूर्णिमा के रोज रात्रि में सभी मूर्ति को भाईयों द्वारा तोड़ा जाता है और सभी मूर्ति बहने द्वारा नदी व तालाब में बहा देती है और इसके पश्चात बहने द्वारा भाइयों को मिठाई चूड़ा खिलाती है और भाई बहन को आर्शीवाद व उपहार देते हैं।
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