Wednesday, January 18, 2012

अब मीट मछली में भी हो रही मिलावट


अररिया : खाद्य पदार्थो में मिलावट के इस दौर में उपभोक्ता शुद्ध मीट व मछली से भी वंचित हो रहे हैं। इन सामानों में स्तरहीन मिलावट की जा रही है तथा जानकारी के अभाव में उपभोक्ता उसे खरीद भी रहे हैं। मिलावटी मीट मछली के सस्ता होने की वजह से कई होटल वाले उसका धड़ल्ले से उपयोग करते हैं। वहीं, प्रशासन की ओर से उपभोक्ताओं के हित में कोई ठोस उपाय नहीं नजर आ रहा।
जानकारों की मानें तो खस्सी के मीट में बूढ़ी झंखाड़ व बैहला बकरी के मांस की मिलावट की जाती है। मांस विक्रेता बूढ़ी बकरियों का मीट खस्सी बता कर बेचते हैं। इतना ही नहीं मांस को बेचने से पहले उसमें पानी की भरपूर मिलावट की जाती है।
कुछ को छोड़ कर शहर के अधिकांश बूचड़खाने सड़क किनारे गंदे नालों के आसपास ही कार्यरत हैं। उन पर हर वक्त सड़क की धूल पड़ती रहती है। बांस के खूंटों में टंगे मीट पर मक्खियों का जमावड़ा तो आम तौर पर दिखाई देते है।
जानकारों के अनुसार पहले नगर पालिका की ओर से मीट की गुणवत्ता को ओके किए जाने के बाद ही उसकी बिक्री की जाती थी, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। प्रशासन की ओर से शहर में स्लाउटर हाउस की स्थापना भी अब तक नहीं की जा सकी है। लिहाजा उपभोक्ता घटिया मीट खरीदने को विवश हैं।
उधर, कई लाइन होटलों में पालतू बत्तख का मीट खस्सी बताकर सर्व कर दिया जाता है। वहीं, बकरी का मीट सस्ता होने की वजह से कई होटलों में इसे धड़ल्ले से चलाया जाता है। जबकि खाने वालों को कीमत खस्सी के मीट की देनी पड़ती है। यही हाल चिकन के मीट का है। देसी मुर्गा बता कर पाल्ट्री फार्म का मुर्गा सर्व करना तो अति सामान्य बात है। कई लाइन होटलों में घटिया क्वालिटी के चिकन सर्व किए जाते हैं। यहां तक कि कुछ लालची किस्म के दुकानदार मरे हुए चिकन को भी बनाकर सर्व कर देते हैं।
वहीं, सूत्रों की मानें तो सड़क किनारे के कई लाइन होटलों में चहा बताकर देसी मैना व बगेड़ी के नाम पर देसी बगड़ो (गोरैया) का मांस परोसा जा रहा है। लगभग यही हाल मछली का भी है। लोकल मछली में आंध्रा की बासी मछलियों की मिलावट आम बात हो गयी है। होटलों में आंध्रा से आने वाली बासी व बर्फ डाली हुई घटिया मछलियां खुलेआम बेची जाती हैं।
मछली, मांस, अंडे व चिकन आदि की कीमत पर कोई नियंत्रण भी नहीं है। विदित हो कि पहले नगर परिषद व प्रशासन ने इन सामानों की मूल्य तालिका प्रदर्शित की जाती थी। इससे उपभोक्ता शोषण का शिकार नहीं होते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा। इस कारण उपभोक्ताओं को बेचने वालों की मनमानी का शिकार होना पड़ रहा है।

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