Saturday, March 5, 2011

कोसी के गांवों में मद्धिम पड़ने लगे भगैत के स्वर


भरगामा, (अररिया) : दैवीय आस्था के सुर की संज्ञा से विभूषित पारंपरिक संगीत विधा भगैत गुजरते वक्त के साथ विलुप्त होने की कगार पर है। कोसी क्षेत्र के गांवों में हजारों साल से प्रचलित भगैत के स्वर मद्धिम पड़ने लगे हैं। स्थिति यह है कि शहर तो दूर अब गांवों में भी यदा कदा ही भगैत की परंपरा मूर्त रूप में देखने को मिलती है। पूर्णिया कमिश्नरी के चार जिले समेत सहरसा, मधेपुरा व सुपौल आदि क्षेत्र सभी भगैत हेतु काफी प्रसिद्ध व प्रचलित रहे। विभिन्न स्थानों के अनुरूप भगैत गायन के मुख्य पात्र भी भिन्न-भिन्न रहे। जिससे धर्मराज, गुरू ज्योति, कालीदास आदि बताये जाते हैं। इन्हीं के जीवन वृतांत तथा देवतूल्य कृत्य व भक्तिभावना की अनुपम पद्धति को आशक्त भक्तों की टोली, झाल मृदंग, ढोलक आदि वाद्य यंत्र के साथ स्वर में गायन करते हैं। खास बात यह है कि गायन के माध्यम से अभिव्यक्ति व्यक्त करने की यह कला निहायत हीं विलक्षण और अद्भूत होती है जो मूल रूप में स्थानीय भाषा शैली पर बोलों में होती हैं। कोसी की दग्ध अंतर कथा नामक पुस्तक में कोसी क्षेत्र में रचनाकार कर्नल अजीत दत्त ने भी अपने पुस्तक में भगैत विषय पर काफी कुछ संग्रह किया है। उनके मुताबिक एक समय बाद इस भगैत गायन के भी बहुत सारे आधार बने जिसमें सहलेस गीत, कृष्ण-राम, खेदन महाराज, सोनाय गीत, दीनाभदरी, लला, चूहड़मल गीत, छेछन प्रेमगीत, विशु राउत, कमला करेए, बालन आदि प्रमुख मानी जाती है। भगैत गायन हेतु मुलगैन कहे जाने रहे आनंद नगर खजूरी निवासी कलानंद यादव, शिकेन्द्र यादव अन्य क्षेत्र के भुनेश्वर मंडल, बेदान यादव आदि बताते हैं कि लोरिक, कारूखिरहरी, कृष्णराम, खेदन महाराज, विशु राउत आदि यादव कुल के लोग देव माने गये। जबकि इनके गाया जाने वाला भगैत वीर रस पर आधारित है। दैविक आराधना के इस रूप में गाया जाने वला भगैत यूं तो एक लंबे समय से कोशी में कायम रहा।
स्थिति कुछ ऐसी रही है कि अवसर शादी-विवाह, मुंडन संस्कार या इस तरह के शुभ अवसर का कोई भी जो लोग इस शुभ का प्रारंभ भगैत से करते थे और धीरे-धीरे यह एक रिवाज भी बना। किंतु इसे भागती फिसलती जिंदगी की विवशता या भौतिक वादी एवं रंगारंग जीवन शैली का प्रभाव हीं कहेंगे कि कोसी क्षेत्र की करीब-करीब पहचान बन चुकी भगैत शहर तो दूर धीरे-धीरे कोसी के गांवों में भी वीरान हो गयी। वैसे इस विलोपन का कारण क्या रहा? क्यों यह प्रथा अदृश्य होती चली गयी? आदि कई ऐसे प्रश्न है जो भगैत के साथ ही ओझल हो गये हैं।

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