अररिया : ज्वाला भले ही भूख की हो कड़वा सच यह है कि पेट की आग के नाम पर अररिया जिले का बचपन स्वाहा हो रहा है। बचपन बचाने के सभी प्रयास यहां बौने पड़ रहे हैं।
अररिया प्रखंड अंतर्गत फरोटा
हाट से आगे देवरिया गांव की ओर जाने वाली सड़क में खुलआम बाल श्रमिकों से कार्य करवाया जा रहा है। सारे बाल श्रमिक महा दलित समुदाय के हैं।
सड़क में मिट्टी भर रहे बाल श्रमिक सुजीत कुमार, पत्थल
ऋषिदेव, विनोद, विकास ऋषि, सन्नी ऋषि आदि ने बताया कि उन्हें साठ सत्तर रुपया दिहाड़ी मिल जाता है। ठीकेदार काम पर लगाता है। सड़क में मिट्टी भरने का काम है।
स्कूल क्यों नहीं जाते?
हें,हें,हें..।
जिले के सैकड़ों होटलों,चाय दुकानों, सरकारी विकास योजनाओं व ईट-भट्ठों में बाल श्रमिकों को काम करते हुए खुलेआम देखा जा सकता है। इतना ही नहीं, बचपन स्वाहा करने वाले दलाल अब भी यहां सक्रिय हैं। गरीबी की मार से जूझ रहे लोगों को चंद रुपयों की लालच देकर ये दलाल यहां के बच्चों को उत्तर प्रदेश की कालीन फैक्ट्रियों में ठूंस देते हैं, जहां उनका बचपन लगातार सिसकने पर विवश हो जाता है।
अररिया जिले में लगभग दस लाख बच्चे हैं। जिनमें से जीरो से पांच साल तक की उम्र वाले बच्चों के की संख्या साढ़े चार लाख बतायी जाती है। सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों को देखें तो तकरीबन पचास हजार बच्चे ऐसे हैं, जो स्कूल में नामांकित रहने के बावजूद स्कूल नहीं जाते।
जानकारों के मुताबिक जागरूकता की कमी, गरीबी, व अशिक्षा के कारण ऐसे बच्चों के गार्जियन अपने बच्चों को काम पर लगा देते हैं। विगत एक डेढ़ दशक के आंकड़ों को देखें तो डेढ़ सौ से अधिक बच्चों को कालीन कारखानों के कथित कारावास से मुक्त करवाया जा चुका है। लेकिन भूख, गरीबी व अशिक्षा का त्रिकोण उन्हें फिर से वहीं झोंक देता है।
जिले में बड़ी संख्या में कार्यरत ईट भट्ठों में भी बाल श्रमिक काम कर रहे बताये जाते हैं। लेकिन उन्हें मुक्त करवाने के प्रयास नगण्य हैं। प्रशासन का महकमा केवल खानापूर्ति में लगा रहता है। चिंहित बाल श्रमिकों को शिक्षा देने के लिये खोले गये बालश्रम स्कूल भी प्रशासनिक उदासीनता की भेंट चढ़ गये हैं।
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