अररिया। नगर परिषद कार्यालय की ठीक बगल का एक मुहल्ला। सुबह का वक्त है। धोती कुर्ता पहने दो शख्स कंधे पर टीन के कनस्तर लेकर आवाज लगाते हुए फिर रहे हैं। क्या है भैया? छेना है, पनीर भी है। लीजिएगा क्या? ..क्या रेट? अरे, रेट का कौन बात है,लगा देंगे न। मोल मोलाई के बाद पैंसठ रुपये प्रति किलो पर बात टूटती है। छेना लीजिए या पनीर जो इच्छा हो। लेकिन यह कौन सा छेना है कि इतनी कम कीमत में मिल रहा है। थोड़ा और कुरेदने पर दोनों शख्स बताते हैं कि यह छेना और पनीर बिहार के बारसोई और बंगाल के कालियाचक, रायगंज आदि स्थानों से आता है।
अब सवाल यह है कि जब ऐसे पनीर व छेना लेकर बेचने वाले दौड़ लगा रहे हैं तो खरीदने वाले भी होंगे। कौन हैं इसके खरीददार? इस बात को चेक करने के लिये कौन है जबावदेह? प्रशासन के फूड इंस्पेक्टर कहा हैं?
जानकारों की मानें तो प्रतिदिन लगभग एक दर्जन से दो दर्जन बाहरी बेपारी ट्रेन के रास्ते छेना व पनीर अररिया व जिले के अन्य बाजारों में लाते हैं और घूम-घूम कर बेचते हैं। अब खरीदने वाले जो भी हों। होटल चलाने वाले या फिर कोई निजी व्यक्ति। जानकार बताते हें कि बाहर से आने वाला छेना व पनीर,(दुकानदार इसे चलानी छेना कहते हैं), कतिपय दुकानों में धड़ल्ले के साथ उपयोग में लाया जा रहा है। त्योहारों के ताजा मौसम में मिलावटी छेना से बनी मिठाईयों की बिक्री भी खूब हो रही है। बताते हैं कि चलानी छेना में मैदा व चावल के महीन चौरठ की धड़ल्ले से मिलावट की जाती है। अन्यथा सोचिये कि अगर अट्ठाइस-तीस रुपये किलो दूध तो साठ रुपये किलो छेना कैसे मिलेगा? मिठाईयों में मिलावट का कहर अलग से है। किसी दुकान के काउंटर में सजे चकाचक पेड़ा को देख कर ललचियेगा नहीं। उसमें मकई का सत्तु मिलावट रहता है।
दीवाली की दस्तक के साथ जिले के विभिन्न शहरों यहां तक कि प्रमुख ग्रामीण बाजारों में भी नकली मिठाईयों की आवक तेज हो गयी है। रेडीमेड मिठाईयों के बारे में पूछने पर दुकानदार कहते हैं कि भैया, ई चलानी मिठाई है। लोकल लेबल पर दूध मिलता नहीं है। मिलता भी है तो बहुत महंगा। इधर, परब ले के इतना न डिमांड हो जाता है कि रेडीमेड नै मंगायेंगे तो दुकाने न बंद करना पड़ेगा। कोनो खराब नै होता है। जरा टेस्ट करके देखिये न।
बताया जाता है कि ये मिठाईयां नकली मावा व छेना आदि से बनती हैं। अधिक दिन तक ठहरने पर इसमें विषैले तत्व व फंगस आदि उत्पन्न हो जाते हैं। लेकिन दशहरा, दीवाली, भैया दूज जैसे मिठाई प्रधान होती है।
जानकारों की मानें तो दो साल पहले की कोसी आपदा में बड़ी संख्या में दुधारु पशु बाढ़ में बह कर मर गये थे। इस कारण हुई दूध की किल्लत अब तक बरकरार है। दुधारु पशुओं के संरक्षण व संवर्द्धन के लिये सरकारी महकमा साफ उदासीन नजर आता है। अगर पशु चिकित्सक हैं भी तो साधन विहीन। लिहाजा दूध की किल्लत कम होने का नाम ही नहीं ले रही।
वहीं, कई दिन पुरानी, बासी व नेपाली डालडा में बनायी गयी मिठाईयों की तो बात ही छोड़ दीजिये। उसको कौन देखता है। सबसे चिंताजनक बात तो यह कि खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता जांच के प्रशासन का कोई महकमा सक्रिय नजर नहीं आता। कहां हैं फू ड इंस्पेक्टर? त्यौहारों के मौसम में माप तौल वाले तो नजर आ भी जाते हैं, लेकिन मानव जीवन के लिये आवश्यक खाद्य पदार्थो की कोई विभाग कम से कम अररिया में तो नहीं दिखता।
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