Friday, May 13, 2011

गावों से विलुप्त हो रही श्रमदान की परंपरा


अररिया : सन 1972 में जिले के मिर्जापुर मिड्ल स्कूल के कैंपस में पक्का भवन बन रहा था। हेडमास्टर को इस बात की चिंता थी कि बिना गड्ढे को भरे मकान कैसे बनेगा? उन्होंने अपनी चिंता छात्रों को बताई। अगली सुबह से छात्रों ने बगल के खेतों से एक- एक चेकड़ी मिट्टी लाना शुरू कर दिया। बस एक सप्ताह में बिना किसी खर्च के गढ्डा भर गया। यह थी अररिया के गावों की वह खासियत जो अब गायब हो रही है।
मिर्जापुर स्कूल के पुराने छात्र व अररिया कालेज में कार्यरत कर्मी परवेज आलम बताते हैं कि उक्त श्रमदान में छात्र के रूप में वे भी शामिल थे। टुकड़ों में बंटी उस मेहनत से उतने बड़े काम के हो जाने का कुछ पता ही नहीं चला। श्री आलम के अनुसार वह श्रमदान उनके लिए आज भी एक जीवंत याद है।
श्रमदान के उदाहरण जिले के तकरीबन सभी गांवों में मिल जाएंगे। लेकिन पुराने दिनों की यह यादगार परंपरा अब तेजी से विलुप्त हो रही है।
बड़े बूढ़ों के अनुसार सत्तर के दशक तक यह अनूठी परंपरा कायम थी। तकरीबन सभी गांवों में सड़क का निर्माण श्रमदान के द्वारा ही होता था।
पतंजलि योग समिति के जिलाध्यक्ष प्रो.कमल नारायण यादव की मानें तो श्रमदान की सहायता से गांवों में कोई भी निर्माण कार्य बगैर सरकारी पैसों के ही संपन्न हो जाता था। जबसे सरकारी पैसा आना शुरू हुआ और काम में राजनीतिक दखलंदाजी बढ़ने लगी, भ्रष्टाचार व काला धन भी बढ़ने लगा।
समाजशास्त्री डा. सुबोध कुमार ठाकुर के अनुसार ग्रामीण एकजुटता बनाए रखने की यह परंपरा शानदार थी। गांव में सड़क बनना है तो प्रत्येक किसान परिवार को जमीन व हल के मुताबिक काम में हिस्सेदारी दी जाती थी। भूमिहीन व्यक्ति स्वयं के श्रम से ही अपनी भागीदारी करते थे।
सामाजिक कार्यकर्ता पारस चंद भारती के मुताबिक श्रमदान तो रामायण काल में भी था। श्रीलंका जाने के लिए जरा राम सेतु निर्माण की कहानी याद कीजिए। एक तरफ जहां नल नील जैसे इंजीनियर है तो वहीं एक छोटी सी गिलहरी भी है, जो अपने मुख में कंकड़ लाकर पुल बनाने में अपनी सहभागिता करती है। श्री भारती कहते हैं कि भारत के गांवों को अगर मजबूत करना है तो श्रमदान की परंपरा को मजबूत करना ही होगा।

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