Wednesday, April 20, 2011

उपेक्षा के कारण मर रहे कुएं


अररिया : कुएं 'मर' रहे हैं। अब पुरानी बात नहीं रही कि जब कुओं को स्टेटस सिंबल माना जाता था। आधुनिकता के प्रवेश ने समाज से यह सदियों पुरानी धरोहर छीन ली है।
किसी वक्त अररिया जैसे जिले में दो हजार से अधिक पक्के कुएं थे। पेय जल, स्नान, संध्या वंदन आदि के लिये कुओं का उपयोग होता था। प्रमुख सड़क के किनारे बड़े व ऊंची जगत वाले कुएं दिलवाये जाते थे। इन कुओं पर न केवल स्नान व वस्त्र बदलने की व्यवस्था रहती थी, बल्कि राही बटोही यहां विश्राम भी करते थे। अररिया जैसे जिले में जहां अंडर ग्राउंड वाटर लेवल बेहद नजदीक है कुओं की उपयोगिता अपार थी। कुएं सामाजिक सरोकार के स्थल थे तथा गांव समाज में बहुत सी खबरों का उद्गम कुआं स्थल से ही होता था।
लेकिन बीसवीं सदी में हैंड पंप के आ जाने के बाद से कुओं की संख्या लगातार घटती गयी है। कुओं को मेनटेन कौन करे? उन्हें साफ करने की जहमत कौन उठाए? सरकारी तंत्र तो मूक दर्शक ही बना रहता है। अब तो कुओं में मिट्टी व झाड़ झंखाड़ भर कर उन्हें समय से पहले ही मौत दी जा रही है। दरअसल कुएं बन गये हैं कचरा पेटी। कोई देखने वाला नहीं।
अररिया के गांवों में कुओं की महत्ता का पता इसी से चलता है कि शादी ब्याह जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर समारोह की शुरूआत आज भी इनार पूजा (कूप पूजन) से ही होती है। गांवों में शादी से पहले कूप पूजन व नगहर भरने की परंपरा आज भी कायम है।
पुराने कुओं के साथ जुड़ा नास्टेलजिया अब भी कहीं न कहीं मौजूद है। बौंसी बाजार स्थित तीसरी कसम में चित्रित कुआं हो या फिर अमर कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु के दरवाजे पर अब भी मौजूद अष्टपहल कुआं, कहीं न कहीं कुआं अपने निर्माण कर्ता की सामाजिक हैसियत को बतलाते हैं।
बौंसी बाजार का कुआं तकरीबन अस्सी नब्बे साल पहले परमेश्वर दयाल नामक
व्यवसायी ने दिलवाया था। लगभग दस फुट ऊंची जगत वाला कुआं आज भी शान के साथ खड़ा है। हालांकि दीवारों में क्रैक्स हो गये हैं, लेकिन खंडहर ही बताती है कि इमारत कभी बुलंद रही होगी।
इस कुएं के साथ मनोरंजक तथ्य यह जुड़ा है कि इसे तीसरी कसम की लोकेशन शूटिंग के दौरान चित्रित किया गया था। चंपानगर मेले से फारबिसगंज मेले की ओर वहीदा रहमान को अपनी गाड़ी में लेकर राजकपूर इसी कुएं की बगल से आते हैं। इतना ही नहीं इस कुएं की शानदार विरासत यह है कि यहां स्वतंत्रता सेनानी व उनकी तलाश में लगी ब्रिटिश पुलिस दोनों पनाह लेते थे। हालांकि समय जरूर आगे पीछे होता था। बौंसी बाजार के लोग इस कुएं को अपनी धरोहर मानते हैं।
इसी तरह प्रख्यात कथा शिल्पी रेणु के पिता शिला नाथ मंडल ने अपने दरवाजे पर एक खूबसूरत अष्टपहल कुआं दिलवाया था। यह कुआं आज भी अच्छी हालत में है।

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