भरगामा : दैवी आस्था के सुर की संज्ञा से विभूषित पारंपरिक संगीत विधा भगैत गुजरते वक्त के साथ विलुप्त होने के कगार पर है। कोसी क्षेत्र के गांवों में हजारों साल से प्रचलित भगैत के स्वर मद्धिम पड़ने लगे हैं। स्थिति यह है कि शहर तो दूर अब गांवों में भी यदा- कदा ही भगैत की परंपरा मूर्त रूप में देखने को मिलती है।
पूर्णिया व सहरसा प्रमंडल के जिलों में भगैत काफी प्रसिद्ध व प्रचलित रहा है। विभिन्न स्थानों के अनुरूप भगैत गायन के मुख्य पात्र भी भिन्न-भिन्न रहे। इनमें धर्मराज, गुरु ज्योति, कालीदास आदि बताये जाते हैं। इन्हीं के जीवन वृतांत तथा देवतुल्य कृत्य एवं भक्तिभावना की अनुपम पद्धति का गायन भक्तों की टोली झाल-मृदंग व ढोलक आदि वाद्य यंत्रों के साथ स्वर में करती है। खास बात यह है कि गायन के माध्यम से अभिव्यक्ति करने की यह कला विलक्षण और अद्भुत होती है जो मूल रूप में स्थानीय भाषा व बोलों से प्रभावित होती है।
कोसी की दग्ध अंतर कथा नामक पुस्तक में कोसी क्षेत्र के रचनाकार कर्नल अजीत दत्त ने भी भगैत के विषय में काफी कुछ संग्रह किया है। उनके मुताबिक एक समय बाद इस भगैत गायन के भी बहुत सारे आधार बने जिसमें सहलेस गीत, कृष्ण-राम, खेदन महाराज, सोनाय गीत, दीनाभदरी, लला, चूहड़मल गीत, छेछन प्रेमगीत, विशु राउत, कमला करेए, बालन आदि प्रमुख माने जाते हैं। भगैत गायन हेतु मुलगैन कहे जाने वाले आनंद नगर खजूरी निवासी कलानंद यादव, शिकेन्द्र यादव तथा अन्य क्षेत्रों के भुनेश्वर मंडल, बेदान यादव आदि बताते हैं कि लोरिक, कारू खिरहरी, कृष्णराम, खेदन महाराज, विशु राउत आदि यादव कुल के लोग देव माने गए जबकि इनके द्वारा गाया जाने वाला भगैत वीर रस पर आधारित है। दैविक आराधना के इस रूप में गाया जाने वला भगैत यूं तो एक लंबे समय से कोसी में कायम रहा है।
स्थिति कुछ ऐसी रही है कि अक्सर शादी-विवाह, मुंडन या इस तरह के शुभ अवसरों का प्रारंभ लोग भगैत से करते थे और धीरे-धीरे यह एक रिवाज भी बन गया। किंतु इसे भागती-फिसलती जिंदगी की विवशता या भौतिकवादी एवं रंगारंग जीवन शैली का प्रभाव ही कहेंगे कि कोसी क्षेत्र की करीब-करीब पहचान बन चुका भगैत शहर तो दूर धीरे-धीरे गांवों से भी लुप्त हो गया। वैसे इस विलोपन का कारण क्या रहा? क्यों यह प्रथा अदृश्य होती चली गई? ऐसे कई ऐसे प्रश्न हैं जो भगैत के साथ ही ओझल हो गए हैं।
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