Friday, June 8, 2012

प्रदूषण का जहर निगल रहा नदियों का जीवन


अररिया : प्रदूषण व उससे उत्पन्न पर्यावरण असंतुलन का जहर नदियों को असमय मार रहा है। नेपाल तराई की गोद में बसे इस इलाके में प्रदूषण के कारण नदियां विलुप्त हो रही हैं तथा आंतरिक जल भंडार सिकुड़ रहा है। इसके भीषण कुपरिणाम सामने आ रहे हैं।
सीमा पार नेपाल की फै क्ट्रियों का कचरा बगैर किसी ट्रीटमेंट के भारतीय क्षेत्र की ओर प्रवाहित होने वाली नदियों में डाल दिया जाता है। इन दिनों कुर्साकाटा, सिकटी, पलासी, अररिया व जोकीहाट प्रखंड के लोग बकरा व परमान के प्रदूषण से परेशान हैं। बकरा में अक्सर लाल पानी बहता रहता है। जानकारों की मानें तो यह नेपाल के सुगर मिलों का कचरा है। लाल पानी के कारण न केवल गांवों के लोग आतंकित रहते हैं, बल्कि इससे नदी जल का पारंपरिक उपयोग भी बाधित हो रहा है। नदियां इस इलाके में आम जीवन के लिए बेहद महत्वूपर्ण रही हैं। स्नान, पशुओं के पीने व खेतों की सिंचाई के लिए नदी के पानी का उपयोग यहां की ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार रहा है। लेकिन प्रदूषण के कारण नदी जल का उपयोग अब खतरनाक हो गया है।
अररिया जिले से बहने वाली अधिकांश नदियां नेपाल की पहाड़ियों से निकलती हैं। इनके उद्गम स्थल में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई होने के कारण पहाड़ियां अब नंगी हो गयी हैं और बारिश के मौसम में पानी के साथ भारी मात्रा में सिल्ट का प्रवाह होने लगा है। इस सिल्ट ने यहां की डेढ़ दर्जन नदियों को विलुप्त कर दिया है। ये नदियां कोसी व सेंट्रल पूर्णिया प्लान की हैं।
फारबिसगंज, नरपतगंज, भरगामा व रानीगंज प्रखंडों में सिल्ट डिपाजिट तथा अंडरग्राउंड वाटर लेवल नीचे चले जाने के कारण सीता, हिरण, बुढ़कोसी, लछहा, बिलैनियां, कजला, कमताहा, फेरियानी, काली कोसी, गेरुआ, कमला, नितिया, चक्कर, वग्जान व पेमा जैसी प्राचीन नदियों को विलुप्त कर दिया है। जानकारों के मुताबिक एक दशक पहले तक ये नदियां जीवंत थी।
नदियों की विलुप्ति तथा प्रवाह परिवर्तन को रोग अब परमान कनकई प्लान की नदियों पर भी लग गया है। इस कड़ी में ताजा नाम नूना का है। यह नदी विगत वर्ष पूरी तरह सूख गयी थी। वहीं, बकरा, परमान व रतवा जैसी सदानीरा धाराओं पर भी प्रदूषण का कहर हाबी हो रहा है। इनका जलस्तर सामान्य से अब कम होता जा रहा है। वहीं, पुराने जमाने में इस प्लेन से प्रवाहित होने वाली कटुआ, जोगजान, दास आदि नदियंा अब पूरी तरह विलुप्त हो गयी हैं।
इस प्लेन की नदियों में सिल्ट डिपाजिट के कारण उनका प्रवाह पथ भी लगातार बदल रहा है तथा बाढ़ व कटाव की विभीषिका पहले की तुलना में बेहद बढ़ गयी हैं। आंकड़े बताते हैं कि विगत पांच साल में बकरा व उसकी सहायक नदियों ने दो हजार से अधिक परिवारों को गृहविहीन बनाया तथा दस हजार एकड़ से अधिक खेतों को बालू की सफेद चादर से तोप कर उसर बना दिया।
वहीं, नदियों को बचाने की किसी योजना पर अब तक काम प्रारंभ नहीं हुआ है। लगभग साढ़े छह सौ करोड़ की महानंदा बेसिन परियोजना अभी कागजों में ही दौड़ लगा रही है। नदियां भले ही ग्रामीण विमर्श का केंद्र हों सरकार व राजनीतिक गलियारों में इसका 'प्रवाह' प्रारंभ नहीं हुआ है।

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