अररिया : अररिया शहर के डेढ़ सौ साल पुराने कचहरी कैंपस में लगभग इतना ही पुराना बरगद का पेड़ है। विकास की हर प्लानिंग का मूक दर्शक और घपलों घोटालों का भी साक्षी। इस बूढ़े बरगद ने सन् 1875 में अनुमंडल कचहरी निर्माण से लेकर सन 1990 में जिला निर्माण तक की कटु मधु यादों भरी यात्रा देखी है। इसकी छांव तले पुराने लोग आज भी अपनी यादों में भरमाते हैं। लेकिन गांवों में ऐसी चौपालें अब गायब हो रही हैं।
टीवी केबलों का प्रसार गांवों तक हो चुका है और सब उसमें ही रमे रहते हैं। वहीं, लहरिया बाइकर्स युवाओं का तबका मोबाइल हेडफोन लगाये तेज रफ्तार जिंदगी से तालमेल जोड़ने में व्यस्त है।
इधर, बड़े बूढ़ों की मानें तो ग्रामीण चौपाल पहले गांवों की सामाजिक मजबूती का आधार होते थे। किसी पुराने पीपल, बड़ या पाकड़ वृक्ष तले लगने वाली इन चौपालों पर गांव के हर आयोजन की योजना पर विचार- विमर्श होता था। खेती की नयी तकनीक, नयी फसल की जानकारी से लेकर देश दुनिया तक की चर्चा। सबका आधार चौपाल ही होते थे। लेकिन सामुदायिक भावना का यह प्रबल आधार स्थल ही अब गायब हो रहा है। समाजशास्त्री डा. सुबोध कुमार ठाकुर की मानें तो इक्कीसवीं सदी में भारतीय समाज भी व्यक्तिवादिता के प्रभाव से ग्रस्त हो गया है। पहले की तुलना में आम जन-जीवन का स्तर व उसमें होने वाला खर्च बढ़ गया है। इसकी पूर्ति में लोगों को अब पहले से अधिक व्यस्त रहना पड़ता है।
शायद यही कारण है कि लोग अब गांवों में पेड़ तले लगने वाली चौपाल गायब हो रही हैं।
अररिया के गावों में एक मुहावरा इन दिनों खूब प्रचलित है: थोड़ा पढ़ा तो हल छोड़ा और अधिक पढ़ा तो गांव छोड़ा। यानी गांवों से अब न केवल प्रतिभा का पलायन हो रहा है, बल्कि कम पढ़े लिखे लोग भी बेहतर जीवन की तलाश में बाहर पलायन करने लगे हैं। जानकारों की मानें तो आधुनिकता के प्रवेश के कारण ऐसा हो रहा है। आधुनिक जीवन शैली युवाओं को भरमाती है और आधुनिक संचार साधनों से युवा वर्ग उसमें रम भी रहा है।
अररिया जिले में पहले धरमपुरिया चौपालों का खूब प्रचलन था। कोरी कोसी नदी के पश्चिम का इलाका धरमपुर परगना के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में हर घर के सामने फूस की एक खूबसूरत चौपाल होती थी। इसमें बैठ कर लोग अपना दुख-सुख बतियाते थे। इलाके में ये चौपाल आज भी नजर आते हैं, लेकिन उसमें बैठने वाले चेहरे समाज के नहीं, बल्कि परिवारों के दायरे में ही सिमट गए हैं।
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