Tuesday, June 12, 2012

जनसुविधाएं: एक चादर मैली सी..


अररिया : जिस जिले की 75 फीसदी आबादी खुले में शौच जाती हो, जहां के नब्बे प्रतिशत लोगों को पीने का शुद्ध पानी नहीं मिलता हो, वहां जन सुविधाओं की बात ही बेमानी लगती है। जनतंत्र की अवधारणा में वर्णित आमजन की सर्वोच्चता कम से कम अररिया में तो कागजी ही प्रतीत होती है। दावे ढेर सारे होते हैं, लेकिन उन पर अमल कम ही होता है। दरअसल मैला आंचल की धरती पर जन सुविधाओं की चादर अब भी मैली सी ही है।
यहां पब्लिक युटिलिटी व‌र्क्स के नाम पर सरकार ढेर सारी योजनाएं चलाती हैं, लेकिन उनके क्रियान्वयन के नाम पर लूट खसोट का बाजार गर्म रहता है। लिहाजा बात उन तक नहीं पहुंचती, जिनके लिए सारी कवायद की जाती है। आम जन यहां के साफ्ट टारगेट हैं। भ्रष्ट लोगों की काली कमाई का चक्र इन्हीं के चारो ओर घूमता है।
बात शौचालयों की करें तो विगत लगभग एक दशक से जिले में चल रहा संपूर्ण स्वच्छता अभियान पूरी तरह विफल ही रहा है। आम जन की तो बात ही छोड़िए, विभाग अभी तक जिले के सारे स्कूलों में शौचालय तक मुहैया नहीं करवा पाया है। मानव संसाधन विभाग के आंकड़े बताते हैं कि 360 स्कूल अभी भी शौचालय विहीन हैं। जहां शौचालय हैं भी उनका रखरखाव ठीक से नहीं होता। उधर, बहुप्रचारित संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत जिले का एक भी गांव निर्मल ग्राम नहीं बन सका है। जिले में बीपीएल शौचालय बनाने के लिए वर्ष 2011-12 में 10665 शौचालय बनाने का लक्ष्य अब तक पूरा नहीं किया गया। इसके लिए 4 करोड़ से अधिक का आवंटन मिला। उसमें से 2.3 करोड़ रुपया अब भी खर्च करने के लिए पड़ा हुआ है। इसी तरह एपीएल शौचालय के लिए मिले 6802 के लक्ष्य के विरुद्ध 30 प्रतिशत राशि खर्च कर मात्र 9 प्रतिशत उपलब्धि हासिल हो पायी। पीएचईडी के प्रतिवेदन के मुताबिक शौचालय बनाने का कार्य प्रगति पर है। इसी रिपोर्ट के अनुसार इस काम के लिए अभी एनजीओ सेलेक्शन का काम किया जा रहा है।
इस जिले की बड़ी त्रासदी है कि तीनों शहरों में से कहीं भी सार्वजनिक शौचालय अथवा युरिनल कार्यरत नहीं हैं। आखिर, जनसुविधाओं के इस प्रमुख पहलू पर कौन ध्यान देगा? विभाग, राजनेता, जनप्रतिनिधि, प्रशासन या ..?
वहीं, पेयजल सुविधा पर नजर दौड़ाएं तो बात अब भी भयावह ही लगती है। यहां के नब्बे प्रतिशत लोगों को पीने का साफ पानी नहीं मिलता। लोग पानी के नाम पर लोहा और बैक्टीरिया पी रहे हैं। जहां तक विभागीय प्रयासों की बात है, पेयजल की जांच के बाद कई उपाय जरूर किए गए हैं, लेकिन उनका लाभ नहीं मिल रहा है। अब तक सारे चापाकलों में लौह निवारण संयंत्र भी नहीं लग पाये हैं।
जन सुविधाओं के मामले में बैक, रेलवे, एलआईसी आदि संस्थाएं भी फिसड्डी ही नजर आती हैं। कुछ शाखाओं को छोड़कर किसी में शुद्ध पेय जल की व्यवस्था नहीं है। अगर है भी तो बंद पड़ी है।
बाक्स के लिए
प्रमुख बिंदु
- 75 प्रतिशत आबादी अब भी जाती है खुले में शौच
-शहरों में बढ़ रही है झुग्गी झोपड़ी
-स्लम एरिया डेवलपमेंट के नाम पर खानापूर्ति
-स्कूलों में शौचालय की कमी
-नब्बे फीसदी लोगों को नहीं मिलता शुद्ध पेयजल
-पेयजल के नाम पर लोहा व बैक्टीरिया पीते हैं लोग
-जिला मुख्यालय के लोग भी वंचित हैं शुद्ध पेयजल से
-बैंकों के सामने पार्किंग की व्यवस्था नहीं
-स्कूलों में शुद्ध पेयजल के लिए लगे टेरा फिल्टर खराब

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