Thursday, June 14, 2012

मनोरंजन के नाम पर अपसंस्कृति, पिछड़ी खेल गतिविधियां


अररिया : छोकरा नाच का मनुआ नटुवा अब ग्रामीण जन के आकर्षण का केंद्र नहीं, अब मनोरंजन के नाम पर खुलेआम अपसंस्कृति परोसी जा रही है। मल्टीप्लेक्स व टीवी सीरियलों के इस युग में पारंपरिक सिनेमा घर भी सूने रह रहे हैं या सी ग्रेड की फिल्मों के बल अपनी संास बचाने में लगे हैं। वहीं, खेल जगत का परिदृश्य भी निराशा जनक ही है। खेल सुविधाओं के नाम पर करोड़ों व्यय के बावजूद उपलब्धियों की झोली खाली ही रह रही है।
मैला आंचल का इलाका अपनी समृद्ध मनोरंजन गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध रहा है। आम जन के बीच सदियों पुराने काल से नाच, गीत-गवनई, पर्व त्यौहार व अन्य आयोजनों के बहाने स्वस्थ मनोरंजन के मौके मिलते थे। बिदापत नाच, नैका बंजारा, लोरिक-सलहेस, सावित्री सत्यवान, शीत बसंत, आल्हा ऊदल जैसे गीति-नाट्यों की मदद से न केवल मनोरंजन होता था, बल्कि ऐतिहासिक विरासतों को भी आसानी से सहेज लिया जाता था। वहीं, शीत बसंत, सती अनुसूइया, बिहुला बिषहरी आदि की गीत कथाओं के माध्यम से पौराणिक आख्यानों को भी पीढ़ी दर पीढ़ी कैरी किया जाता था। लेकिन टीवी व डीवीडी के आगमन के बाद सब कुछ समाप्त हो गया है। अब मनोरंजन के नाम पर अपसंस्कृति का जोर है।
ग्रामीण मेले में एक वक्त हीरा बाई व हीरामन की अनकही प्रेमकहानी की कथा भूमि होते थे, वहां अब ब्लू- फिल्में व सी ग्रेड की फूहड़ फिल्में परोसी जा रही हैं। तकरीबन सालो भर चलने वाले छोटे-छोटे ग्रामीण मेले अपसंस्कृति के सबसे बड़े सेंटर बन चुके हैं। इन मेलों में फूस की झोपड़ियां खड़ी कर उनमें ब्लू फिल्में खुलेआम दिखायी जाती है। कई मेलों में चित्रहार नामक गीतमाला की आड़ में देह व्यापार का खेल चलता है। सबसे बड़ी बात यह कि मनोरंजन के पूरे सीन से प्रशासन लगभग गायब ही नजर आता है। जिले में चल रहे अधिकतर सिनेमा व वीडियो हाल बगैर लाइसेंस के चल रहे बताये जाते हैं। खासकर ग्रामीण बाजारों में चलने वाले सिनेमाहालों में दर्शकों की सामान्य सुविधाओं का भी ख्याल नहीं रखा जाता।
इधर, खेल के मामले में किसी वक्त अंतर्राष्ट्रीय व राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी पैदा करने वाले अररिया में खेल गतिविधियां पूरी तरह पिछड़ गयी हैं। ईस्ट बंगाल के विरुद्ध अररिया का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रसिद्ध फुटबालर मानिक डे के शब्दों में जब अररिया में कोई स्टेडियम नहीं था, एक से बढ़कर एक खिलाड़ी थे, आज जब स्टेडियम व शानदार मैदान उपलब्ध हैं तो खेलने वाला ही कोई नहीं मिलता।
स्कूल कालेजों में भी खेलकूद के नाम पर केवल खानापूर्ति हो रही हे। सरकार की ओर से खेल के नाम पर धन राशि मुहैया जरूर करवायी गयी है, लेकिन खेल महज औपचारिकता बन कर रह गए हैं।

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