Tuesday, January 11, 2011

लुप्त हो रहा जल संरक्षण का सशक्त साधन कुआं


सिकटी (अररिया), निसं: सभ्यता के विकास के साथ ही जहां पीने के पानी का एक मात्र विकल्प कुआं था वहीं आधुनिक युग में अब उस परंपरागत कुएं का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा है। एक समय था जब जल संरक्षण का सशक्त माध्यम के साथ साथ कुआं आपसी प्रेम व भाई चारा का प्रतीक हुआ करता था। लेकिन आज गावों में भी ढूंढ़ने से नहीं मिलते हैं कुएं। जबकि जल विशेषज्ञों का मानना है कि चापाकल की तुलना में कहीं अधिक सुरक्षित कुएं का जल है। जल जीवन के लिए कितना अहमियत रखता है यह सभी जानते हैं। बावजूद कितना पानी हम बेकार में जाया कर देते हैं यह हमें पता हीं नहीं होता। जबकि हमारे पूर्वज पानी का कद्र देवी-देवताओं की माफिक किया करते थे। एक जमाना था जब लोगों के सोशल स्टेटस का एक पैमाना यह भी था कि उसने कितने कुएं या तालाब खुदवायें हैं। बहुत ही पुण्य का काम समझा जाता था कुएं खुदवाना। कुआं सिर्फ पानी भरने के ही काम नहीं आता था बल्कि समाजिक सह अस्तित्व का प्रतीक भी था। एक कुएं पर कई परिवार हीं नहीं कई टोले के लोग निर्भर होते थे जहां सुबह-शाम लोगों की आपस में मुलाकात होती थी, बात होती थी और खत्म होती थी दूरियां। इतना हीं नहीं समाज को अनुशासन में बांधने के काम आते थे कुएं। कुएं को देवी का स्वरूप मानते हुए खुदाई के बाद इसकी पूजा की जाती थीं। जिसमें लोग देवी कोयला की पूजा किया करते थे। आज भी धार्मिक अनुष्ठान व शादी-विवाह जैसे अन्य मौके पर कुएं के जल से अनुष्ठान किये जाने का रिवाज है। लेकिन अब तो धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी मुश्किल से मिलते हैं कुएं। जानकारों का कहना है कि कुएं का जल चापाकल की तुलना में ज्यादा सुरक्षित है। इसमें आयरन की मात्रा नहीं के बराबर होती है। साथ ही पानी की बर्बादी भी कुएं से कम होती हैं। कुएं का मुंह खुला होता है जिससे सूर्य की रोशनी अंदर तक जाती है साथ ही पानी निकालने में डाले गये बाल्टी से मची हलचल से वैक्टिरिया का नाश होता है। कुल मिलाकर देखे तो विकास की इस दौर में जल संरक्षण का माध्यम कुआं का अस्तित्व समाप्त सा हो गया है।

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